बुधवार, 10 जनवरी 2018

सूखे ने जिन मवेशियों का सब कुछ छीन लिया


देश के जिन इलाकों में सूखे ने दस्तक दे दी है और खेत सूखने के बाद किसानों व खेत-मजदूरों के परिवार पलायन कर गए हैं, वहां छुट्टा मवेशियों की तादाद सबसे ज्यादा है। इनके लिए पीने के पानी की व्यवस्था का गणित अलग ही है। आए रोज गांव-गांव में कई-कई दिनों तक चारा न मिलने या पानी न मिलने या फिर इसके कारण भड़ककर हाईवे पर आने से होने वाली दुर्घटनाओं के चलते मवेशी मर रहे हैं। गरमी के दिन तो और भी बदतर होंगे, क्योंकि तापमान भी बढ़ेगा। बुंदेलखंड में लोगों ने अपने मवेशियों को खुला छोड़ दिया है, क्योंकि चारे व पानी की व्यवस्था वे नहीं कर सकते। इसे वहां पर ‘अन्ना प्रथा’ कहा जाता है। सैकड़ों मवेशियों ने अपना बसेरा सड़कों पर बना लिया। पिछले दिनों ऐसे कोई पांच हजार मवेशियों का रेला हमीरपुर से महोबा जिले की सीमा में घुसा, तो किसानों ने रास्ता जाम कर दिया। इन जानवरों को हमीरपुर जिले के राठ के बीएनबी कॉलेज परिसर में घेरा गया था और योजना के अनुसार पुलिस की अभिरक्षा में इन्हें रात में चुपके से महोबा जिले में खदेड़ना था। एक तरफ पुलिस, दूसरी तरफ सशस्त्र गांव वाले और बीच में हजारों मवेशी। कई घंटे तनाव के बाद जब जिला प्रशसन ने इन गायों को जंगल में भेजने की बात मानी, तब तनाव कम हुआ। उधर बांदा जिले के कई गांवों में अन्ना पशुओं को लेकर हो रहे तनाव से निपटने के लिए प्रशासन ने बेआसरा पशुओं को स्कूलों के परिसर में घेरना शुरू कर दिया है। इससे कई जगहों पर पढ़ाई चौपट हो गई है। प्रशासन के पास इतना बजट नहीं है कि उनके लिए हर दिन चारे-पानी की व्यवस्था की जाए। किसानों के लिए ये मवेशी परेशानी का सबब हैं, क्योंकि ये उनकी खेतों में लहलहा रही फसलों को चट कर जाते हैं।

पिछले दो दशकों से मध्य भारत का अधिकांश हिस्सा तीन साल में एक बार अल्प वर्षा का शिकार रहा है। यहां से रोजगार के लिए पलायन की परंपरा भी एक सदी से ज्यादा पुरानी है, लेकिन मवेशियों को मजबूरी में छुट्टा छोड़ देने का रोग अभी कुछ दशक से ही है। ‘अन्ना प्रथा’ यानी अनुपयोगी मवेशी को आवारा छोड़ देने के चलते यहां खेत व इंसान, दोनों पर संकट है। उरई, झांसी आदि जिलों में कई ऐसे किसान हैं, जिनके पास अपने जल ससांधन हैं, लेकिन वे अन्ना पशुओं के कारण बुवाई नहीं कर पाए। जब फसल कुछ हरी होती है, तो अचानक ही हजारों मवेशियों का रेवड़ आता है और फसल चट कर जाता है। इसी के साथ जुड़ी हुई राजनीति की समस्याएं भी बहुत सारी हैं।

अभी चार दशक पहले तक हर गांव में चरागाह की जमीन होती थी। शायद ही कोई ऐसा गांव या मजरा होगा, जहां कम से कम एक तालाब और कई कुएं न हों। जंगल का फैलाव पचास फीसदी तक था। आधुनिकता की आंधी में बहकर लोगों ने चरागाह को अपना ‘चरागाह’ बना लिया व हड़प गए। तालाबों की जमीन समतल करके या फिर घर की नाली और गंदगी उनमें गिराकर उनका अस्तित्व खत्म कर दिया गया। हैंडपंप या ट्यूबवेल की मृग-मरीचिका में कुओं को बिसरा दिया। जंगलों की ऐसी कटाई हुई कि अब बुंदेलखंड में अंतिम संस्कार के लिए भी लकड़ी नहीं बची है और वन विभाग के डिपो दूर से लकड़ी मंगवा रहे हैं। जो कुछ जंगल बचे भी हैं, वहां पर मवेशियों के चरने पर रोक है।

अभी बरसात बहुत दूर है। जब सूखे का संकट चरम पर होगा, तो लोगों को मुआवजा, राहत कार्य या ऐसे ही नामों पर राशि बांटी जाएगी, लेकिन देश और समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले पशु-धन को सहेजने के प्रति शायद ही किसी का ध्यान जाए। अभी तो औसत या अल्प बारिश के चलते जमीन पर थोड़ी हरियाली है और कहीं-कहीं पानी भी, लेकिन अगली बारिश होने में अभी कम से कम तीन महीने हैं और इतने लंबे समय तक आधे पेट व प्यासे रहकर मवेशियों का जी पाना संभव नहीं होगा। बुंदेलखंड में जीविकोपार्जन का एकमात्र जरिया खेती ही है और मवेशी पालन इसका सहायक व्यवसाय। यह जान लें कि एक करोड़ से ज्यादा संख्या का पशु धन तैयार करने में कई साल व कई अरब की रकम लगेगी, लेकिन उनके चारा-पानी की व्यवस्था के लिए कुछ करोड़ ही काफी होंगे।

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